रसखान के इन सवैयों का शिक्षक की सहायता से कक्षा में आदर्श वाचन कीजिए। साथ ही किन्हीं दो सवैयों को कंठस्थ कीजिए।
पहला सवैया :
मानुष हौं तो वही रसखानि बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन ।
जौं पसु हौं तो कहा बस मेरो चरौं नित नन्द की धेनु मँझारन ।।
पाहन हौं तो वही गिरि को जो कियो हरिछत्र पुरंदर धारन ।
जौं खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन ।।
अर्थ :
इस सवैये में रसखान जी ने ब्रजभूमि के प्रति अपने प्रेम और समर्पण को व्यक्त किया है। वह चाहते है कि उनका जन्म ब्रज की भूमि में ही हो फिर चाहे इंसान के रूप में हो या पशु, पक्षी के रूप में हो या किसी पत्थर या पहाड़ के रूप में हो। उनकी इच्छा है कि अगर वह मनुष्य के रूप में जन्म लेते हैं तो उन्हें गोकुल के ग्वालों के रूप में बसना हैं और अगर वह पशु के रूप में जन्म लेते हैं तो उन्हें नन्द बाबा की गायों के साथ चरना हैं। यदि वह पत्थर के रूप में जन्म लेते हैं तो उन्हें गोवर्धन पर्वत का अंश बनना हैं क्योंकि गोवर्धन पर्वत को श्री कृष्ण भगवान् जी ने अपनी ऊँगली से उठाया था और यदि वह पक्षी के रूप में जन्म लेते हैं तो उन्हें कदम्ब की डाल पर अपना घर बनाना हैं।
दूसरा सवैया :
या लकुटी अरु कामरिया पर राज़ तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि नवौं निधि के सुख नन्द की गाइ चराइ बिसारौं।।
रसखान कबौं इन आँखिन सौं, बृज के बन बाग़ तड़ाग निहारौं।
कोटिक ए कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
अर्थ :
कवि कहता है कि गायों को चराने के लिए जो लाठी और कम्बल श्री कृष्ण जी और ग्वालें साथ में रखा करते थे उसे प्राप्त करने के लिए वह तीनों लोकों का राज भी त्यागने को तैयार है। अगर उसे नन्द बाबा की गाये चराने का अवसर मिले तो वह आठों सिद्धि और नवों निधि के सुख को भी भुला देगा। कवि चाहता है कि वह जीवन - पर्यन्त ब्रज के वन - उपवन, बाग़ और बगीचे के सौंदर्य को अपनी आँखों से निहारता रहे। कवि ब्रज की कांटेदार झाड़ियों के लिए सौ महलों को भी न्योछावर करने को तैयार है।