‘‘सामाजिक जीवन में क्रोध की जरूरत बराबर पड़ती है। यदि क्रोध न हो तो मनुष्य दूसरे के द्वारा पहुँचाए जाने वाले बहुत से कष्टों की चिर-निवृत्ति का उपाय ही न कर सके।’’

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का यह कथन इस बात की पुष्टि करता है कि क्रोध हमेशा नकारात्मक भाव लिए नहीं होता बल्कि कभी-कभी सकारात्मक भी होता है। इसके पक्ष या विपक्ष में अपना मत प्रकट कीजिए।


क्रोध सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का होता है। व्यक्ति के अहंकार को चोट पहुंचने पर उसकी पहली प्रतिक्रिया के रूप में जो क्रोध बाहर निकलकर सामने आता है वह श्रेष्ठ दर्जे का क्रोध नहीं है। हमें यह आश्चर्य लग सकता है कि भला क्रोध का भी स्तर हो सकता है और वह भी श्रेष्ठ दर्जे का क्रोध! पर हम इस तरह से मान सकते हैं कि जो क्रोध हमारे आत्मसम्मान के आहत होने पर हमारे अन्दर से उभरता है उसका भाव अधिक स्थायी होने से इसका प्रभाव हमें आत्मविवेचना कर अपने आप को और अधिक अच्छा बनाने का अवसर प्रदान करता है। जो क्रोध हमारे स्वाभिमान के आहत होने पर उभरता है वह जरा कम श्रेष्ठ दर्जे का क्रोध है। उपरोक्त सभी प्रकार के क्रोध हालांकि सकारात्मक भाव लिये हुए हैं क्योंकि ये हमारे व्यक्तित्व को सकारात्मक ढंग से प्रभावित करते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल नकारात्मक क्रोध की बात भी करते हैं। नकारात्मक क्रोध वह है जो किसी व्यक्ति के मन में अन्य की सफलता देखकर उसकी खुशी से ईर्ष्या करने पर उभरता है। आज के भौतिकवादी समय में इस प्रकार के क्रोध करने वाले लोगों की संख्या बढती ही जा रही है । इस प्रकार का क्रोध आज हमारे समाज में अशांति बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण बन रहा है। इस प्रकार का क्रोध सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव वाला बनकर भी उभर रहा है।


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